Kavitaye

*.जीवन में एक सितारा था
   माना वह बेहद प्यारा था
   वह डूब गया तो डूब गया
   अंबर के आंगन को देखो
   कितने इसके तारे टूटे
   कितने इसके प्यारे छूटे
   जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
   पर बोलो टूटे तारों पर
   कब अंबर शोक मनाता है
   जो बीत गई सो बात गई


   जीवन में वह था एक कुसुम
   थे उस पर नित्य निछावर तुम
   वह सूख गया तो सूख गया
   मधुबन की छाती को देखो
   सूखी कितनी इसकी कलियाँ
   मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
   जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
   पर बोलो सूखे फूलों पर
   कब मधुबन शोर मचाता है
   जो बीत गई सो बात गई

  जीवन में मधु का प्याला था
  तुमने तन मन दे डाला था
  वह टूट गया तो टूट गया
  मदिरालय का आंगन देखो
  कितने प्याले हिल जाते हैं
  गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
  जो गिरते हैं कब उठते हैं
  पर बोलो टूटे प्यालों पर
  कब मदिरालय पछताता है
  जो बीत गई सो बात गई

  मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
  मधु घट फूटा ही करते हैं
  लघु जीवन ले कर आए हैं
  प्याले टूटा ही करते हैं
  फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
  मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
  जो मादकता के मारे हैं
  वे मधु लूटा ही करते हैं
  वह कच्चा पीने वाला है
  जिसकी ममता घट प्यालों पर
  जो सच्चे मधु से जला हुआ
  कब रोता है चिल्लाता है
  जो बीत गई सो बात गई


*.लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
  कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

  नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
  चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
  मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
  चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
  आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
  कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।


  डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
  जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
  मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
  बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
  मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
  कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

  असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
  क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
  जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
  संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
  कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
  कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

*.पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
   पुस्तकों में है नहीं
   छापी गई इसकी कहानी
   हाल इसका ज्ञात होता
   है न औरों की जबानी
   अनगिनत राही गए
   इस राह से उनका पता क्या
   पर गए कुछ लोग इस पर
   छोड़ पैरों  की निशानी



   यह निशानी मूक होकर
  भी बहुत कुछ बोलती है
  खोल इसका अर्थ पंथी
  पंथ का अनुमान कर ले।
  पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
  यह बुरा है या कि अच्छा
  व्यर्थ दिन इस पर बिताना
  अब असंभव छोड़ यह पथ
  दूसरे पर पग बढ़ाना
  तू इसे अच्छा समझ
  यात्रा सरल इससे बनेगी
  सोच मत केवल तुझे ही
  यह पड़ा मन में बिठाना
  हर सफल पंथी यही
  विश्वास ले इस पर बढ़ा है
  तू इसी पर आज अपने
  चित्त का अवधान कर ले।
  पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
  है अनिश्चित किस जगह पर
  सरित गिरि गह्वर मिलेंगे
  है अनिश्चित किस जगह पर
  बाग वन सुंदर मिलेंगे
  किस जगह यात्रा खतम हो
  जाएगी यह भी अनिश्चित
  है अनिश्चित कब सुमन कब
  कंटकों के शर मिलेंगे
  कौन सहसा छू जाएँगे
  मिलेंगे कौन सहसा
  आ पड़े कुछ भी रुकेगा
  तू न ऐसी आन कर ले।
  पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

*.है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था ,
  भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था,
  स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
  स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
  ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
  एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम
  का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
  प्रथम उशा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा
  थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
  वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनो हथेली,
  एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
  कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
  आँख से मस्ती झपकती, बातसे मस्ती टपकती,
  थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
  वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
  पर अथिरता पर समय की मुसकुराना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिसमें राग जागा,
  वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
  एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
  भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गागा,
  अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही,
  ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  हाय वे साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आए,
  पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
  दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
  एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
  वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
  खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

  क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
  कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
  नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
  किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
  जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
  पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है? 
   
*.कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
  भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

  स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
  स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
  ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
  एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

  बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
  का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
  प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
  थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
  वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
  एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

  क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
  कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
  आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
  थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
  वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
  पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

  हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
  वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
  एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
  भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
  अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
  ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

  हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
  पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
  दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
  एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
  वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
  खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

  क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
  कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
  नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
  किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
  जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
  पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
  है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है 

*.जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
  कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
  जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

  जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
  मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
  हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
  हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
  कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
  आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
  फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
  मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
  क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
  जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
  जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
  जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
  जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
  कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
  जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

  मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
  मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
  जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
  उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
  जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
  उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
  क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
  यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
  अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
  क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
  वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
  जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
  यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
  जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
  जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
  जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
  कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
  जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

  मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
  है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
  कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
  प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
  मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
  पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
  नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
  अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
  मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
  कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
  ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
  केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
  जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
  लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
  इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
  जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
  कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
  जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।


*.देवों ने था जिसे बनाया,
देवों ने था जिसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?

इसने स्वर्ग रिझाना सीखा,
स्वर्गिक तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?

क्यों बाकी अभिलाषा मन में,
झंकृत हो यह फिर जीवन में?
क्यों न हृदय निर्मम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ? 


*.लो दिन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई, 

*.हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है! 

*.

इस पार, उस पार

1
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

2
जग में रस की नदियाँ बहती,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

3
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है,
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

4
कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

5
संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

6
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
‘मरमर' न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

7
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल',
सरिता अपना ‘कलकल' गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं,
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

8
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

9
दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा! 

*.अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चांद औ' तारे,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

गगन में गर्व से उठउठ,
गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं,
नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

तिमिर के राज का ऐसा
कठिन आतंक छाया है,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय का सब समां बांधे
प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस
तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय की रात में सोचे
प्रणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पथ में पलकें बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?


*.कहते हैं तारे गाते हैं!
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं!
कहते हैं तारे गाते हैं!

स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथिवी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं!
कहते हैं तारे गाते हैं!

ऊपर देव तले मानवगण,
नभ में दोनों गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं।
कहते हैं तारे गाते हैं! 
*.अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

‘यह अधिकार कहाँ से लाया!'
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था? 

*.मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-विक्रेता को प्यारी,
मधु के धट मुझपर बलिहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख देखा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

2

इस नीले अंचल की छाया
में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

3

मधुघट ले जब करती नर्तन,
मेरे नूपुर के छम-छनन
में लय होता जग का क्रंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

4

मैं इस आँगन की आकर्षण,
मधु से सिंचित मेरी चितवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

5

था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

6

तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था भ्रम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप लिए सर पर,
मैं आई करती उजियाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

7

सोने की मधुशाना चमकी,
माणित द्युति से मदिरा दमकी,
मधुगंध दिशाओं में चमकी,
चल पड़ा लिए कर में प्याला
प्रत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

8

थे मदिरा के मृत-मूक घड़े,
थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े,
थे जड़वत् प्याले भूमि पड़े,
जादू के हाथों से छूकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

9

मुझको छूकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मालिक जागा मलकर पलकें,
अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
चिर सुप्त विमूर्च्छित मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

10

प्यासे आए, मैंने आँका,
वातायन से मैंने झाँका,
पीनेवालों का दल बाँका,
उत्कंठित स्वर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!'
मैं मधुशाला की मधुबाला!

11

खुल द्वार गए मदिरालय के,
नारे लगते मेरी जय के,
मिट चिह्न गए चिंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मदिरा ला-ला'!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!

12

हर एक तृप्ति का दास यहाँ,
पर एक बात है खास यहाँ,
पीने से बढ़ती प्यास यहाँ,
सौभाग्य मगर मेरा देखो,
देने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!

13

चाहे जितना मैं दूँ हाला,
चाहे जितना तू पी प्याला,
चाहे जितना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हूँ अन्तिम,
यह शांत नही होगी ज्वाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

14

मधु कौन यहाँ पीने आता,
है किसका प्यालों से नाता,
जग देख मुझे है मदमाता,
जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर
तनती मैं स्वप्नों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

15

यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला,
यह स्वप्न रचित मधु का प्याला,
स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला,
स्वप्नों की दुनिया में भूला 
फिरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला! 

*.मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदघ से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

*.साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता

पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है

एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता

शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था

घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा

थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था

पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते

शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए

किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते

और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना

एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन

मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना

एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है

यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई

साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है

सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर! 

*हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया! 

*.मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

*.1 
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में 
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ 
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से 
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले 
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का 
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

2
जग में रस की नदियाँ बहती, 
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी 
नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, 
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं 
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, 
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का 
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

3
प्याला है पर पी पाएँगे, 
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, 
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, 
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही 
कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का 
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

4
कुछ भी न किया था जब उसका, 
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, 
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर 
जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, 
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर 
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से 
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

5
संसृति के जीवन में, सुभगे 
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे 
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी 
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी 
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का 
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा 
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

6
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा 
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर 
‘मरमर' न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन 
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का 
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का 
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

7
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन 
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल', 
सरिता अपना ‘कलकल' गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, 
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे 
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें, 
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का 
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

8
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली, 
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी 
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की 
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का 
श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा!

9
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, 
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई 
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती, 
जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग, 
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा! 

*.मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीण पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?

बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलमिलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता? 

*.पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

पुस्तकों में है नहीं
छापी गई इसकी कहानी
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी

अनगिनत राही गए
इस राह से उनका पता क्या
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी

यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना

तू इसे अच्छा समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना

हर सफल पंथी यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

है अनिश्चित किस जगह पर
सरित गिरि गह्वर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुंदर मिलेंगे

किस जगह यात्रा खतम हो
जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे

कौन सहसा छू जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी रुकेगा
तू न ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले। 

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